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बढ़ते प्रदूषण से जान और जहान खतरे में

ललित गर्ग
कहते हैं कि जान है तो जहान है, लेकिन भारत में बढ़ते प्रदूषण के कारण जान और जहान, दोनों ही खतरे में हैं। देश की हवा में घुलते प्रदूषण का ‘जहर’ अनेक बार खतरनाक स्थिति में पहुंच जाना चिंता का बड़ा कारण हैं। प्रदूषण की अनेक बंदिशों एवं हिदायतों के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की बात खोखली साबित हो रही है। यह कैसा समाज है जहां व्यक्ति के लिए पर्यावरण, अपना स्वास्थ्य या दूसरों की सुविधा-असुविधा का कोई अर्थ नहीं है। जीवन-शैली ऐसी बन गई है कि आदमी जीने के लिए सब कुछ करने लगा पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया। गंभीर होती इस स्थिति को यूनिसेफ और अमेरिका के स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान ‘हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट’ की साझेदारी में जारी रिपोर्ट ने बयां किया है। रिपोर्ट के आंकड़े करने वाले हैं, जिनमें 2021 में वायु प्रदूषण से 21 लाख भारतीयों के मरने की बात कही गई है।

दुखद यह है कि मरने वालों में 1.69 लाख बच्चे हैं। निश्चय ही ये आंकड़े जहां व्यथित और चिंतित करने वाले हैं वहीं नीति-नियंताओं के लिए शर्म का विषय होना चाहिए। सरकार की नाकामयियां ही हैं कि जिंदगी विषमताओं और विसंगतियों से घिरी है, कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। जानलेवा वायु प्रदूषण न केवल भारत, बल्कि दुनिया के लिए गंभीर समस्या है। चीन में भी इसी कालखंड में 23 लाख लोग वायु प्रदूषण से मरे हैं। जहां तक पूरी दुनिया में इस वर्ष मरने वालों की संख्या की बात है तो यह करीब 81 लाख बताई जाती है।

चिंता की बात यह है कि भारत और चीन में वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या के मामले में यह आंकड़ा वैश्विक स्तर पर 54 फीसद है जो हमारे तंत्र की विफलता, गरीबी और प्रदूषण नियंत्रण में कोताही को दर्शाता है। इसमें आम आदमी की लापरवाही भी कम नहीं है। उसे पता ही नहीं होता कि किन प्रमुख कारणों से वह प्रदूषण फैला रहा है। प्रश्न है कि आम आदमी एवं उसकी जीवनशैली वायु प्रदूषण को इतना बेपरवाह होकर क्यों फैलाती है? क्यों आदमी मृत्यु से नहीं डर रहा? प्रदूषण जैसी समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़ कर डराती हैं। विडम्बना तो यह है कि विभिन्न राज्य सरकारें विकट होती समस्या का हल निकालने की बजाय राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप लगाती रहती हैं। जानबूझकर प्रदूषण फैलाती हैं ताकि एक-दूसरे की छीछालेदर कर सकें। प्रदूषण के नाम पर कोरी राजनीति होना दुर्भाग्यपूर्ण है। दिल्ली सहित उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में प्रदूषण का बेहद खतरनाक स्थिति में बने रहना चिंता में डालता है।

दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुरु ग्राम में प्रदूषण का बड़ा कारण पड़ोसी राज्यों से आने वाला पराली का धुआं होता है। पटाखों का धुआं भी समस्या है, इसके अलावा सडक़ों पर लगातार बढ़ते निजी वाहन, गुणवत्ता के ईधन का उपयोग न होना, निर्माण कार्य खुले में होना, उद्योगों की घातक गैसों व धुएं का नियमन न होने एवं बढ़ता धूम्रपान जैसे अनेक कारण वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले हैं। आवासीय कॉलोनियों और व्यावसायिक संस्थानों का विज्ञानसम्मत ढंग से निर्माण न हो पाना भी प्रदूषण बढ़ाने की वजह है। यह कैसी शासन-व्यवस्था है? अदालतों की कैसी अवमानना का मामला है? यह सभ्यता की निचली सीढ़ी है, जहां तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच व्यक्ति, शासन-प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण के दायित्वों से दूर होता जा रहा है।

यूनिसेफ की रिपोर्ट में वायु प्रदूषण से 1 लाख 69 हजार बच्चे, जिनकी औसत आयु पांच साल से कम बताई गई है, मौत के शिकार होते हैं। प्रदूषण का प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर होने से बच्चे समय से पहले जन्म ले लेते हैं, इनका समुचित शारीरिक विकास ढंग से नहीं हो पाता। बच्चों का कम वजन का पैदा होना, अस्थमा तथा फेफड़ों की बीमारियां से पीडि़त होना जैसी शिकायतें आम हैं। चिंता की बात यह भी है कि गरीब मुल्कों नाइजीरिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इथोपिया से ज्यादा बच्चे हमारे देश में वायु प्रदूषण से मर रहे हैं। विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिग तथा जलवायु परिवर्तन के संकट ने वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या को बढ़ाया है। एक अरब चालीस करोड़ जनसंख्या वाले भारत के लिए संकट बड़ा है। दिल्ली सहित कई महानगरों में प्रदूषण जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। हर कुछ समय बाद अलग-अलग वजहों से हवा की गुणवत्ता का स्तर ‘बेहद खराब’ की श्रेणी में दर्ज किया जाता है और सरकार की ओर से स्थिति में सुधार के लिए तमाम उपाय करने की घोषणा की जाती है। हो सकता है कि ऐसा होता भी हो, लेकिन सच यह है कि कुछ समय बाद प्रदूषण का स्तर गहराने के साथ सवाल खड़ा होता है कि आखिर, इसकी असली जड़ क्या है, और क्या सरकार की कोशिशें सही दिशा में हो पा रही हैं?

पिछले कई सालों से दुनिया के पहले बीस प्रदूषित शहरों में भारत के कई शहर दर्ज होते रहे हैं। जाहिर है, हम वायु प्रदूषण के दिनोंदिन गहराते संकट से निपट पाने में तो कामयाब हो नहीं पा रहे, बल्कि जानते-बूझते ऐसे काम करने में जरा भी नहीं हिचकिचा रहे हैं, जो हवा को और जहरीला बना रहे हैं। हम नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक एवं व्यक्तिगत, सभी क्षेत्रों में मनोबल के दिवालिएपन के कगार पर आ खड़े हुए हैं।

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