भाजपा से असहमत लोग विकल्प के तौर पर कांग्रेस को नहीं, बल्कि इंडिया गठबंधन को देख रहे हैँ। ऐसे में इस गठबंधन की तरफ से चंदा उगाहने की मुहिम छेड़ी जाती, तो उसका न सिर्फ प्रतीकात्मक प्रभाव होता, बल्कि कुछ सियासी असर भी हो सकता था। कांग्रेस ने अब सीधे जनता से चंदा उगाहने का फैसला किया है। आम तौर पर राजनीति में इसे एक बेहतर रास्ता समझा जाता है। इससे पार्टियां थैलीशाहों पर निर्भर होने से बचती हैं, जबकि इस माध्यम से चंदा देने वाले लोगों से उनका जीवंत रिश्ता भी बनता है। इससे चंदा देने वालों के प्रति उनकी एक न्यूनतम जिम्मेदारी बनने की संभावना भी जगती है। दुनिया भर में चुनावी लोकतंत्र पर थैलीशाहों का शिकंजा कस गया है, जिससे ये व्यवस्थाएं धनिक-तंत्र में तब्दील हो गई हैँ।
अमेरिका में 2016 में जब बर्नी सैंडर्स डेमोक्रेटिक पार्टी का राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की होड़ में उतरे, तो उन्होंने छोटे चंदों को अपने अभियान की खास पहचान बताया। उनकी टीम ने तब एलान किया था कि सैंडर्स को लाखों छोटे चंदे मिले और उस रकम का औसत सिर्फ 18 डॉलर था। यह दीगर बात है कि सैंडर्स की व्यापक लोकप्रियता के बावजूद अंतत: थैलीशाहों और उनके लॉबिस्ट्स ने उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार नहीं बनने दिया। बहरहाल, अब भारत में कांग्रेस ने इस मॉडल को अपनाने का फैसला किया है, तो सामान्य स्थितियों इसका स्वागत किया जाता। लेकिन अब आम चुनाव में सिर्फ चार महीने बचे हैँ। इस समय भाजपा से असहमत लोग विकल्प के तौर पर कांग्रेस को नहीं, बल्कि इंडिया गठबंधन को देख रहे हैँ। ऐसे में अगर इस गठबंधन की तरफ से चंदा उगाहने की मुहिम छेड़ी जाती, तो उसका न सिर्फ प्रतीकात्मक प्रभाव होता, बल्कि कुछ सियासी असर भी देखने को मिल सकता था।
परंतु कांग्रेस ने फिर अकेला चलने का नजरिया अपनाया है। हाल के विधानसभा चुनावों में यह नजरिया नाकाम रहा। इसके बावजूद लगता नहीं कि कांग्रेस नेतृत्व ने कोई सबक सीखा है। वरना, वह खुद को विपक्षी एकता के हिस्से के रूप में पेश करती। तब वह 19 दिसंबर की इंडिया की बैठक में क्राउड-फंडिंग का प्रस्ताव लाती और सहमति बनने पर यह मुहिम पूरे गठबंधन की तरफ से शुरू की जाती। इससे भाजपा विरोधी समूहों में उत्साह पैदा होता और उनके बीच उद्देश्य की एकता भी उत्पन्न होती। मगर कांग्रेस की सोच अलग है। वह अपने हितों से आगे नहीं देख पाती।